August 25, 2012

मैं जो कभी रौनको का शहर था

पता नहीं किसकी नज़र लगी है मुझे,
के कुछ मिर्च के टुकड़े और नींबू भी बेकार से लगते है।
मैं जो कभी रौनको का शहर था,
आज धुएं में गुम  हूँ ।
यहाँ की सड़के,गलियाँ ,मोहल्ले और उनपे पसरे सन्नाटे,
चीख-चीख कर मेरी सारी  दास्ताँ बयाँ करते  हैं।
के कैसे कुछ धर्म के चोले में छीपे पाखंडियो ने मेरे लोगो की हँसती हुई जिंदगी को एक खौफ के साएं में डूबा दिया है,
अब तो कोई खिड़की से झाँकता है या मुंडेरो से या कभी कभी बंद घरो के दरवाज़े की ओट से,
और सबकी आँखों में बस दहशत देखता हूँ  मैं।
बस अब और जुल्म बर्दाश्त नहीं होता खुद पर,
इस सन्नाटे से दम घुटता है मेरा।
वो भीड़-भाड़ भरे इलाके और उसकी रौनक-रौशनी वो सब मुझे लौटा दो,
वो बाजार वो झुमकों के किस्से वो कहानियाँ सारी लौटा दो।
नहीं रहना अब मुझे इस बारूद की महक में,
वो फिजाओं में जो इत्र की महक थी वो फिर से फैला दो,
सुरमे भरी आँखे ही मुझको थी भाती,ये आंसू सबकी आँखों से हटा दो।
मुझे मेरा वजूद वापस लौटा दो।

-शिष्टा-

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर कविता ,लिखते रहो

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