April 09, 2012

बचपन के खेल...


"पोषम-पा भाई पोषम-पा साथियो ने क्या किया,सौ रुपये की घड़ी चुराई। "
इस पंक्ति से कुछ यादें ताज़ा हुई अपने बचपन की!
की कैसे दो बच्चे एक दूसरे से हाथ मिलाये एक खेल खेलते थे और एक बच्चा उनके बीच से निकलता था। 
क्या दिन थे वो!

जब शायद सिर्फ खेलने और खाने के अलावा कुछ याद ही नहीं रहता था,
धूप चाहे जितनी भी हो मैदानों में जा के क्रिकेट खेलने की एक ललक सी हमेशा रहती थी।
ये बचपन की कुछ संचित यादें है जो हमेशा याद रहेंगी,
इनको भूलना मुश्किल ही नहीं असंभव है।

पहले गर्मी की छुट्टियों का बेसब्री से इंतज़ार करते थे,जिससे हम गाँव जा कर वो समय खेत, खलियान,और बागो में पेड़ पे चड़कर खेलने में व्यतीत करे। पहले गर्मी की छुट्टियों के दिन जो गाँवों में बीता करते थे, आज वो विडियो-गेम खेलने और कंप्यूटर पे बैठे बैठे बीत जाते है।
कई लोग गर्मी की छुट्टियों में अपने घर रहकर भी तरह तरह के खेल ढूंढ ही लेते थे, और उनमें से एक था सिकड़ी जो किसी के भी आँगन, छत या घर के बाहर बने खुले बरामदे में खेला जाता था। इसके अलावा लडकियां जहां अपनी "गुड़ियों-गुड्डो की शादी" और "घर-घर" खेलने में समय बिताती थी,वही लड़के पतंगबाजी से अपना समय व्यतीत करते थे। "ये काटा,वो मारा" अगर ऐसे कुछ शब्द आपके भी कानो में पड़े हैं तो आपको अच्छी तरह याद होगा वो पतंगबाजी का दौर,जिससे अमूमन ये अंदाजा तो हो ही जाता था के गर्मी की छुट्टियाँ आ गयी हैं। 

लड़के जहाँ "गेंद-ताड़ी" खेलते नहीं थकते थे वहीँ लडकियां उनसे बचने का कोई मौका नहीं छोडती थी।कुछ खेल तो ऐसे अनोखे होते थे की बस उनके बारे में बच्चे ही समझ पाते थे, जैसे उनमें से एक था "घोड़ा जमाल खाए पीछे देखो मार खाये" यह खेल तो सबको याद ही होगा,जैसे ही कोई पीछे देखता था बिना वजह उससे एक जोर का हाथ पड़ता था जो चोर होता था उससे और अगर वहां पे कोई निशानी रक्खी मिल गयी तो उसको चोर को पकड़ने के लिए दौड़ लगानी होती थी। ये कुछ ऐसे दिन थे जहाँ शायद मार खाने के बाद भी दोस्ती नहीं टूटती थी।वही अब अगर गलती से भी कुछ मुंह से निकल जाए तो लोग जन्मो के दुश्मन बनते नज़र आते हैं।


उस समय तो मिटटी के खिलौने भी मानो जैसे सोने के लगते थे,जरा से चिटक भर जाए तो आँखों में आंसू आ जाते थे और नए खिलौनों के लिए बहुत इंतज़ार और माँ बाप को मनाना पड़ता था जबकि अब हालात ये हैं की महंगे खिलौने को ही बच्चे खेलना चाहते है, और उनके टूट जाने पर भी बच्चो को कोई अफ़सोस नहीं होता है।क्यूंकि उनको एक नया खिलौना तो हमेशा ही आसानी से मिल जाता है।
आज के इस दौर में हर चीज़ "status symbol" बन गयी है तो बच्चे भी इनसे अछूते नहीं हैं,वो भी अब "Brand conscious" हो गए हैं। पिछले जमाने में जहाँ दो रुपये का "लूडो" मन बहला दिया करता था,वहीँ आजकल बीस हजार का विडियो गेम भी मन को संतुष्टि नहीं दे पाता है।
शायद यही वजह है की पहले के बच्चो को पैसो का महत्त्व पता था और आजकल के बच्चो के लिए पैसा तो उड़ाने की चीज़ होता है।

"विष-अमृत और छुपन-छुप्पाई" के खेल को खेलने के लिए तो मानो जमावड़ा लगता था बच्चो का, पूरे मोहल्ले को खबर लग जाती थी की बच्चो की टोली कोई खेल खेलने निकली है।पर आजकल तो हर गलियों में सन्नाटा ही पसरा रहता है,चाहे शाम हो चाहे दोपहर।
पहले घर वालो की डांट खा कर भी नहीं मानते थे बच्चे और खेलने के लिए घर से शाम होते ही भाग के घर के बहार निकल जाते थे,पर वहीँ अब तो घर वाले बोल बोल के थक जाते है की "घर से निकलो और बाहर खेलने जाओ"।


पहले जहाँ दादी और नानी की कहानी सुने बिना बच्चो को नींद नहीं आती थी वहीँ आजकल के बच्चे देर रात तक कंप्यूटर पर समय व्यतीत करने के बाद सोना पसंद करते हैं।
संयुक्त परिवार होने की वजह से जहाँ पहले बच्चो को अपने साथी आसानी से बिना ढूंढें ही मिल जाया करते थे वहीँ आज एकल परिवार की वजह से बच्चे अपना सारा समय विडियो गेम और इंटरनेट गेम को हे देते हैं।जिसकी वजह से वो सामाजिक व्यवाहारो और संस्कारों को भूल कर के विर्चुअल दुनिया को ही अपनी वास्तविक दुनिया मानने लगते हैं। 
पहले जहां चश्मे सिर्फ उम्र दराज़ लोगो के लिए ही मुख्यतया: हुआ करते थे, वहीँ अब छोटे छोटे बच्चे भी आँखों पर चश्मा चढ़ाये दिखाई देते है।जिसका सिर्फ एक मुख्य कारण हैं विडियो गमेस और कंप्यूटर गमेस। 
गुजरे जमाने के बच्चे जहाँ आराम से किसी भी समस्याओ का आपस में मिल कर हल निकाल लेते थे वहीँ आज के इस दौर में बच्चे जरा सी बात पे उलझ के रह जाते हैं।
आजकल के बच्चो में चीड़चिड़ापन और जिद्दी होना आम बात है क्यूंकि वो समूह में ना खेलने की बजाय अकेले ही समय व्यतीत करना पसंद करते हैं।


कहते हैं की कंप्यूटर एक जरिया है मानसिक विकास का पर आजकल इंटरनेट पर ऐसे गमेस भी मौजूद हैं जो बच्चो को एक गलत राह की तरफ ले जाते हैं,जिससे उनके कोमल मन और दिमाग पर असर तो पड़ता ही हैं,साथ-साथ समय से पहले ही बच्चो के मन में चीजो को अनुभव करने की ललक बढ़ जाती हैं।जो उन्हें समाज से काट देता हैं साथ ही साथ दिमाग पर भी दुष्प्रभाव डालता है।  
घर पर रहने के बावजूद आजकल के बच्चे अपने में ही सिमट कर प्रायः रह जाते है और माता-पिता से दूरी उनका सामजिक और व्यवाहरिक ना होना है जिससे उनकी माता पिता एवं समाज के प्रति दूरियाँ बढ़ती चली जाती हैं।जो उनके लिए आगे चल कर समस्या बनती चली जाती है।
“आक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो,था बच्चो का खेल अमोल।
बचपन में ऊँच नीँच का खेल था खूब भाया,नहीं किसी के मन में ऊँच-नीँच कभी आया । खो-खो के खेल में हो गए इतने मशगूल,ना थी कुछ खोने की चिंता, ना पाने का जूनून। पोषम-पा से सीखा हमने कभी ना करना भूल ,क्यूंकि ज़िन्दगी में हैं कांटे भी सिर्फ नहीं हैं फूल। विष अमृत का था कुछ ऐसा खेल ,सबका हो जाता था आपस में मेल। चेन-चेन से सीखा हमने एकता में है बल ,नहीं डाल सकता था तब कोई आपस में खलल। सिकड़ी से सीखा हमने एक पैर से कूदना,जैसे अब ज़िन्दगी सिखाती है मुश्किलों से जूझना।”
लेखिका -शिष्टा  मौर्या